Wednesday, February 15, 2012

असम के बराक घाटी के चाय बागानों के लोकगीत


असम के बराक घाटी के चाय बागानों के लोकगीत
    
           भारत के स्वतंत्र होने से पूर्व असम को दो भागों में विभक्त किया गया था। ब्रह्मपुत्र उपत्यका एवं सूरमा उपत्यका। ब्रह्मपुत्र नदी असम के उत्तरी भाग में हैं और सूरमा नदी दक्षिणी भाग में बहती है। सिलहट या श्रीहट्ट जो अब बंगलादेश में है विभाजन से पूर्व दक्षिणी असम का भाग था। दक्षिणी असम में सिलहट और कछाड़ दो जिले थे। सिलहट पूर्वी पाकिस्तान में सूरमा नदी के साथ चला गया। कछाड़ जिले में बहनेवाली बराक नदी के नाम पर इसका नाम बराक उपत्यका हो गया और कछाड़ में कछाड़, करीमगंज और हाइलाकान्दी नामक तीन जिले बना दिए गए। दक्षिणी असम संप्रति बराक घाटी के नाम से प्रसिद्ध है।
            बराक घाटी के लोग तब शायद जानते भी नहीं थे कि ईष्ट इंडिया कम्पनी एकदिन यहाँ का राजकार्य अपने हाथ में ले लेंगे। सन 1832 ई. में अंग्रेजों ने कछाड़ जिला अपने अधिकार में लिया। इसके पीछे आर्थिक लाभ ही मुख्य नहीं था, अपितु बर्मी लोगों के हाथ में दखल होने की सम्भवनाओं पर विचार करके अंग्रेजों ने आधिपत्य जमाया था। इस घटना के ढाई दशक बाद ही निर्माण हुआ एक से अधिक चाय-बागानों का। असम में चाय और चाय कारखानों के उज्ज्वल भविष्य की बात सोचकर ही सन 1835 ई. में उत्तर लखीमपुर नामक जिला में चाय की खेती प्रारम्भ हुई। उस समय कछाड़ के जिला शासक टमॉस फिसार थे और उन्होंने अपने प्रतिवेदन में कहा कि कछाड़ की मिट्टी और मौसम भी चाय की खेती के लिए लाभदायक है। फिसार के पेश किए गए प्रतिवेदन की मौलिकता को अंग्रेजों ने स्वीकार किया और चाय की खेती कछाड़ में भी प्रारम्भ हुई। सन 1855 ई. में
जिला शासक वर्नर नामक अंग्रेज ने बंगाल सरकार के सचिव को चाय की खेती के पक्ष में जो पत्र लिखे उसके परिणाम स्वरूप सचिव के अनुमोदन सापेक्ष और आदेशानुसार वर्नर कलकत्ता से अनेक व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को कछाड़ में आकर सुविधापूर्वक शर्तों के साथ चाय की खेती के लिए बुलाया गया। उसी समय से कछाड़ में चाय की खेती के लिए एक बागान को तीन सौ एकड़ से लेकर एक हजार एकड़ जमीन दी गई। वर्नर के बुलाने से जो कछाड़ में सर्वप्रथम चाय की खेती के लिए आए उनका नाम विलयमसन था। ‘बरसांगन’ कछाड़ का प्राचीनतम चाय बागान है। देखते ही देखते यहाँ बहुत से चाय बागानों का निर्माण हो गया। भौगोलिक कारणों से यहाँ चाय की खेती टीलों पर की गई। पहले चाय बागानों का निर्माण हुआ बराक के उत्तर में बराल पहाड़ से निकली हुई शृंखलाओं में, किन्तु इस तरह के जमीन सीमित रहने के कारण बराक के दक्षिण में भी खेती प्रारम्भ हुई। प्रथम जिला शासक ने अपने प्रतिवेदन में कहा था कि कछाड़ में चाय बागानों के लिए श्रमिकों या मजदूरों की अभाव नहीं होगा, जरूरत पड़े तो सिलहट से मजदूर लाये जायेंगे। कालक्रम में देखा गया कि स्थानीय मजदूर या श्रमिकों से चाय उत्पादन का काम नहीं चल रहा है। फलस्वरूप दलालों के जरिए बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल से मजदूरों की आमदानी शुरू हुई।
            बराक – सूरमा घाटी में चाय की खेती के कारण ही श्रमिकों की आमदानी शुरू हुई। ब्रिटिश अधिकार से पहले यहाँ जो नरगोष्ठी या जनजातियाँ आपस में मिलजुलकर रह रही थीं इनसे चाय बागानों का कष्ट साध्य काम करवाना सम्भव नहीं है। इस बात को चाय के पूँजीपति लोग उपलब्ध करके ही सर्दारों, दलालों का उपयोग किया तथा बराक – ब्रह्मपुत्र के चाय बागानों में भारत के भिन्न – भिन्न प्रान्तों से आदिवासी लोगों को लाया गया। श्रमिकों की मांग में दिन – दिन बृद्धि होने के फलस्वरूप श्रमिक संग्राहक दलालों का नज़र भारत के जन – जाति समूह के ऊपर पड़ी। ब्रिटिश शासक भी श्रमिकों की मांग पूरी करने के उद्देश्य से पहले से ही इस देश के जन – जातियों के ऊपर कानून के दाव – पेचों से जमीन और
जीविका से वंचित कर रहे थे। इन असहाय लोगों के एक – एक अंश या भाग को दलालों के माध्यम से चाय बागानों में भेजते रहे। दुःखित – पीड़ित दक्षिण नरगोष्ठी के प्रायः पचास कौम के लोग उस समय बराक – ब्रह्मपुत्र घाटी में आने के लिए विवश किए गए। इनमें नाईडू, तेलिंगा, रेली जैसे हैं वैसे ही बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश से उरांग, मुँडा, सारिया, नागेशिया, साँउताल, माल, कूर्मी, नूनिया, अहिर, ग्वाला, कानू, कहार, कैरी, कामार, रविदास आदि उड़ीसा से आए थे पाँड, कोदाल, दास, ताँतुआ आदि कौम की जनता। नए – नए चाय बागानों का निर्माण ही नहीं हुआ, अपितु जंगल काटकर बागान बनाना व लोगों का बसना भी शुरू हुआ। इसी कारण फिर से सामाजिक परिवर्तन का स्रोत प्रबल हो उठा। बराक घाटी की जमीन में लाए गए विभिन्न प्रान्तों के लोगों से निर्माण कार्य आरम्भ हुआ। नया समाज बना। विभिन्न जातिओं के मेल से सामाजिक आचार – विचार का आदान – प्रदान और उससे नई संस्कृति का निर्माण हुआ।  एक नई भाषा बनी जिसे यहाँ ‘बागानी भाषा’ कहा जाता है। इस भाषा में हिन्दी, बँगला, उड़ीया आदि भाषाओं के शब्द पाये जाते हैं।
        असम के बराक घाटी के चाय बागानों में एक प्रकार के लोकगीत गाये जाते हैं जिसे मूलतः झूमर गीत कहा जाता है। झूम – झूमकर गाये जाने वाले गीत ही झूमर हैं। चाय बागान के विशिष्ट लोकगीत को साधारणतः बारहमासा गीत भी कहा जाता है, कयोंकि झूमर किसी विशेष ॠतु, महीने या समय सीमा के बीच के गीत नहीं हैं। झूमर गीत पूरे साल भर गाये जाते हैं। समय का विधि – निषेध झूमर के लिये नहीं है। विषय वस्तु की दृष्टि से झूमर के चार भाग हैं --- 1) लौकिक प्रेम विषयक, 2) राधाकृष्ण प्रेम विषयक, 3) पौराणिक और 4) सामाजिक। इन झूमरों के उदाहरण प्रस्तुत हैं ----
1)  प्रेमेर कथा बोलते नाय, प्रेमेर कथा कोयते नाय।
प्रेमेर कथा बोलते गेले तारा होय तो साधुजन।
प्रेम करो ना रे मन, प्रेमे जाति कुल जाय आर जाय जीबन॥
अर्थात, प्रेम के शब्द बोलना नहीं, प्रेम के शब्द कहना नहीं। प्रेम के शब्द कहने से व्यक्ति पण्डित हो जाता है। प्रेम करना नहीं मन, प्रेम में जातिकुल जाता है और जाता है जीवन।

2)  एमनि पिरितेर गुन जेमन काँचा आमे मेशे गो नून।
आमे नूने मेशा-मेशि होय वैशाख मासे।
अ-भाव करे जे भाव राखते नारे, सेजन जाय गो नरके॥
अर्थात, ऐसे ही प्रीति के गुण जैसे वैशाख महीने में कच्चे आम के साथ नमक मिलता है। प्रेम के सम्बन्ध जोड़कर जो सम्बन्ध नहीं रख पाते वह जाते हैं नरक में।
            राधाकृष्ण प्रेम विषयक झूमर के उदाहरण प्रस्तुत हैं ----
            संजुवेला कही गेला मनी रमनी, आहे चतुर मनी सुनो मनोहर बानी
            मबुलो भेसो होई येबुनी, परी जाती पुष्प मेयाथेली बेनी।
अर्थात, राधा सज - सवँरकर बैठी हुई थी। उसकी सखिओं ने पूछा कि कया बात है? तो राधा मुस्कराते हुए बोली कि कृष्ण मुझे यमुना के किनारे मिले थे और कहा था कि वे शाम को यहाँ मुझसे मिलने आयेंगे। उसकी सखियाँ यह बात सुनते ही तरह – तरह के पुष्प लाकर पलंग को सजाने लगी।
            सामाजिक झूमर के उदाहरण प्रस्तुत हैं ---
चा-बागाने जनम हामदेर, चा-बागाने करम गो, करम हामरा रोजेय करि,
श्रम हामदेर पूजा गो, ओ दादा धनिराम,
चा-बागाने बाँचे थाका बोड़ो कठिनकाम।
पाति तुलि डगा – डगा, ओजन करे बाबू गो, ओजोनेते बाबू गिना,
केजी – केजी मारे गो, ओ दादा धनिराम,
चा-बागाने कुदाल मारा बोड़ो कठिन काम।
सारा हाप्ता काम, हाप्ताय एकदिन छूठि गो, छूटिर दिनटाते हामदेर,
तलप रेशन छाड़ा गो, ओ दादा धनिराम,
चा-बागाने बाँचे थाका बोड़ो कठिनकाम।
अर्थात, चाय – बागान में हमने जन्म लिया और यहीं पर हमारा कर्म है। कर्म तो हम रोज ही करते हैं और श्रम हमारे लिए पूजा है, परन्तु चाय – बागान में जीवित रहना अत्यन्त कठिन कार्य है। कच्ची चाय – पत्ती तोड़ते हैं, उसमें से वजन करने वाले जो कर्मचारी होते हैं वे चोरी कर लेते हैं। पूरा सप्ताह काम करने के उपरान्त एकदिन छुट्टी मिलती है उसमें भी मजदूरी, राशन कुछ नहीं मिलता है। इसलिए चाय – बागान में जीवित रहना अत्यन्त कठिन कार्य है।
            इस प्रकार के अनेकों लोकगीत असम के चाय बागानों में भरे पड़े हैं।
     

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